वैकुण्ठ चतुर्दशी पर महिलाओं ने पानी मे प्रवाहित किए”बेड़े”

करसोग। कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को वैकुण्ठ चतुर्दशी का पर्व करसोग-पांगणा-सुुकेत में धूमधाम से मनाया गया।सनातन संस्कृति ,संस्कार और संस्कृत के विद्वान रमेश शास्त्री जी का कहना है कि वैकुण्ठ चौदश) वास्तव में हरि-हर (भगवान विष्णु और शिव मिलन का पावन पर्व है। यह दिन भगवान श्री विष्णु और भगवान शिव — दोनों की संयुक्त उपासना के लिए समर्पित होता है।जो व्यक्ति प्रातःकाल शिव और विष्णु का पूजन करता है वह भगवान की कृपा और अनंत सिद्धिको प्राप्त करता है।
यह एकमात्र ऐसा दिन है जब भगवान विष्णु और भगवान शिव की पूजा एक साथ करने का विधान है।
कहा जाता है कि इस दिन उपवास और पूजन करने से व्यक्ति को सभी पापों से मुक्ति मिलती है और वैकुण्ठ धाम की प्राप्ति होती है।
पौराणिक कथा है कि एक बार भगवान विष्णु ने भगवान शिव की आराधना करने का संकल्प लिया। उन्होंने एक हजार कमल-पुष्प अर्पित करने का व्रत लिया।परंतु जब उन्होंने गिनती की, तो एक कमल कम निकला।विष्णु जी के नेत्रों को भी “कमल” कहा गया है, इसलिए उन्होंने अपना एक नेत्र निकालकर भगवान शिव को अर्पित कर दिया।शिवजी विष्णु की इस भक्ति से प्रसन्न हुए और उन्हें सुदर्शन चक्र प्रदान किया।
उसी दिन को वैकुण्ठ चतुर्दशी कहा गया।
इस दिन प्रातः गंगाजल वाले पानी या तीर्थ स्नान कर व्रत का संकल्प लिया।भगवान विष्णु को बिल्वपत्र और भगवान शिव को तुलसी-दल अर्पित किया।अधिकतर
महिलाओं ने इस व्रत को किया।संध्या के समय विशेष पूजन कर पूजा में 365 बातियाँ तैयार कर इन्हे 14 दीपों में विभाजित किया।ये दीपक घी में भिगोकर एक विशेष लकड़ी के पात्र /गत्ते के डिब्बे में रखकर हरिहर भगवान की मूदिरों मे पूजा-अर्चना करके नदी,बावड़ी या सिचाई कुल्ह के जल की पूजा-अर्चना कर
“ॐ हरिहर विष्णु शिवाय नमः”के मंत्र के उच्चारण के साथ पानी मे प्रवाहित किए। इस विधान को करने से
सौभाग्य, आरोग्य और अनंत पुण्य की प्राप्ति होती है।
इस व्रत से धन, धान्य, पुत्र-पौत्र, सौभाग्य और मोक्ष की प्राप्ति होती है।हरिहर उपासना से भक्त के जीवन में संतुलन, सद्भाव और शांति आती है।

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