शिमला। शिमला सहित प्रदेश के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक कालीबाड़ी मंदिर में मां की मूर्तियां बनाने का कार्य लगभग पूरा हो चुका है. इन मूर्तियों को विशेष तौर पर गंगा नदी की मिट्टी से बनाया जाता है. बीते करीब 50 वर्षों से मूर्तियों को बनाने की परंपरा है और दशहरे के दिन इन मूर्तियों को विसर्जित किया जाता है. इस दिन बंगाली मूल की महिलाओं सहित स्थानीय महिलाएं सिंदूर की होली खेलती है. माता की पूजा करने की यह परंपरा पश्चिम बंगाल में बहुत प्रचलित है, जिसे शिमला के कालीबाड़ी मंदिर में भी धूम धाम से मनाया जाता है.कालीबाड़ी मंदिर के पुजारी मुक्ति चक्रवर्ती ने बताया कि मूर्तियों के बनाने का कार्य पूरा हो चुका है. इन मूर्तियों को बंगाल से आए कलाकार बनाते है. वह अपने साथ गंगा की मिट्टी भी साथ लेकर आते है. यह मिट्टी ट्रेन के माध्यम से यहां पहुंचाई जाती है. सभी कलाकार जन्माष्टमी के समय शिमला पहुंचते है और मूर्तियां बनाने की प्राथमिक तैयारियां शुरू करने के बाद यहां से चले जाते है. इसके बाद नवरात्रि के दौरान एक बार फिर कलाकार यहां पहुंच कर माता की मूर्तियां को आखरी रूप देते है. मां की बनाई मूर्तियों का विसर्जन दशहरे के दिन किया जाता है. शिमला के तारा देवी के ITBP तालाब में माता की मूर्तियां को विसर्जित किया जाएगा. दुर्गा पूजा के बाद मां को विदा करते हुए महिलाएं सिंदूर की होली खेलती है. नवरात्रि के दौरान मां स्वर्ग लोग से मृत्यु लोक में आती है. ऐसे में पूरा साल अपनी रोजी रोटी और अन्य कार्यों के लिए जद्दोजहद करने वाले लोग नवरात्रि में मां के चरणों में नतमस्तक होते है. बता दे कि बिलासपुर के नरसिंह मंदिर, कांगड़ा, दाडलाघाट सहित प्रदेश के कई क्षेत्रों में बंगाल से आने वाले यही कलाकार मूर्तियां बनाते है.पश्चिम बंगाल से मां दुर्गा की मूर्ति तैयार करने के लिए पहुंचे दीपू कलाकार ने बताया कि उनका पूरा गांव मूर्ति बनाने का काम करता है. उनके पिता बीते करीब 35 सालों से कालीबाड़ी मां के साथ हिमाचल प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में मूर्तियां बनाने के लिए आते हैं. इसके लिए वह मिट्टी अपने साथ पश्चिम बंगाल से ही लेकर यहां पहुंचते हैं. सालों से मूर्ति बनाने का यह काम किया जा रहा है. इस साल भी मूर्ति बनाने का काम पूरा हो चुका है. यहां मूर्ति बनाने का काम करना उन पर मां काली की कृपा ही है. मां काली की कृपा से ही वे यह कलकारी सीख सके हैं.